कबीर दास एक महान थे जिन्होंने हमारे दुनिया में क्रांति लाई। उनकी सोच और शिक्षा प्रदान करने का तरीका उस वक्त के लोगों से बहुत ही अलग था। वह इस दुनिया को एक अलग ही नज़रिए से देखते थे जिसमें कोई जाति भेद, कोई ऊँच-नीच और कोई भी गरीब या अमीर नही था। उन्होंने करोड़ों लोगों की जिंदगी बदल कर रख दी।

ऐसा कोई भारतीय नहीं होगा जो इन्हे नहीं जानता। हम सभी उनके बारे में जानते हैं और कुछ तो इनकी पूजा करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन काल में जितने दोस्त बनाएँ उससे कई अधिक दुश्मन बनाएँ थे। वह काफी निडर थे। अपने सामने किसी भी तरह का गलत व्यवहार तथा विचार बर्दाश्त नहीं करते थे।
अब अगर कबीर दास के दोहे की बात की जाए तो वह लाजवाब हुआ करते थे। उनके हर एक दोहे बहुत ही गहरे मतलब के साथ होते थे। कबीर दास अपने दोहों के द्वारा समाज के कटु सत्य को एक सरल भाषा में बया करते थे।
कबीरदास से जुड़ी कुछ ऐसी ही रोचक और अविश्वसनीय बातें भी हैं जो कोई नहीं जानता आज हम उन्हीं बातों के बारे में बात करेंगे और उनके जीवन की हर छोटी व बड़ी बातों के बारे में जानेंगे।
कबीरदास का जन्म (Birth of Kabirdas)
कबीर दास जी का जन्म आज से 600 वर्ष पहले वाराणसी में हुआ था। कबीर दास जी के जन्म के किससे बड़े ही प्रसिद्ध है क्योंकि उनकी कहानी बहुत दिलचस्प है। कहानियों की मानें तो ऐसा कहा जाता है कि कबीरदास को जन्म एक विधवा ब्राह्मणी ने दिया था। उन्होंने कबीरदास के बालक रूप को लहरतारा तालाब के किनारे एक कमल के पुष्प पर छोड़ दिया।
कबीर दास नीरू और नीमा नाम के एक मुसलमान पति-पत्नी को मिले। उन्होंने कबीर को गोद ले लिया और इसी तरह से नीरू कबीर के पिता और नीमा कबीर की माँ बन गई। जब कबीर दास नीरू और नीमा को मिले तब उनके चेहरे पर सूरज का तेज था और नीरू नीमा उसे देखते ही समझ गए की यह कोई आम बालक नहीं है यह साक्षात भगवान का कोई चमत्कार है।
नीरु और नीमा कबीर दास को अपने घर ले आए और इन्हीं दोनों ने उनका पालन पोषण किया। किसी को नहीं पता था कि वह बालक कौन है? किसका बच्चा है? कौन उसे लहरतारा तालाब के किनारे छोड़ गया? किस जाति का है?
जब कबीर दास के नाम रखने की बारी आई तब एक मौलवी और एक पंडित दोनों को बुलाया गया था। दोनों के सहमति से उनका नाम कबीर पड़ा। उस वक्त इसे भी एक तरह का चमत्कार ही कहा गया की एक पंडित और एक मौलवी दोनों ही एक नाम “कबीर” पर सहमत हुए थे जिसका अर्थ है महान। बड़े होकर उन्होंने अपने नाम को सिद्ध भी कर दिया।
कबीर दास के गुरु – Guru of Kabir Das
कबीरदास तो खुद ज्ञान के दाता थे तो फिर उनके गुरु कौन हो सकते हैं? ऐसा कौन व्यक्ति है जिसे कबीर दास का गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा? चलिए जानते हैं,
काशी में एक ही ऐसा व्यक्ति था जो कबीर से ज्यादा ज्ञानी माना जाता है वह थे पंडित रामानंद जी। काशी में पंडित रामानंद जी की बड़ी ही पूज थी।
ऐसा माना जाता है कि काशी में रामानंद के बस 12 ही शिष्य थे जिसमें कबीर की भी गिनती की जाती है। कबीर भी सिर्फ पंडित रामानंद को ही अपने गुरु के रूप में देखना चाहते थे।
स्वामी रामानंद को अपना गुरु बनाने के लिए कबीर को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा क्योंकि कबीर एक मुस्लिम परिवार से थे तथा स्वामी रामानंद एक पंडित थे।
जब कबीर पहली बार स्वामी रामानंद के आश्रम में गए तो सबसे पहले कबीर जी से उनकी जाती तथा धर्म पर सवाल पूछे गए। जब कबीर ने उत्तर में बताया कि वह एक मुस्लिम जुलाहा परिवार से हैं तब पंडित रामानंद के शिष्यों ने कबीर का बहुत मजाक बनाया।
स्वामी रामानंद ने भी कबीर की कोई सहायता नहीं की तथा एक पर्दे के पीछे से ही सारी वार्तालाप कि। जब पंडित रामानंद को उनके शिष्यों द्वारा पता चला कि कबीर भी उनके शिष्य बनना चाहते हैं लेकिन वह एक गरीब जुलाहा है तब पंडित रामानंद ने कबीर को बहुत खरी-खोटी सुनाते हुए कहा कि, ” तू जो कर रहा है वही कर तेरा जन्म उसी काम के लिए हुआ है, हमारे जैसा बनने की कोशिश ना ही कर तो अच्छा रहेगा। “
बस यही नहीं उनके शिष्यों द्वारा कबीर को बेइज्जत करके उस आश्रम से निकाल दिया गया था। कबीर ने वहाँ पर बहुत विनती की लेकिन उसकी एक भी न सुनी गई।
उस वक्त ऐसा माना जाता था कि अगर पंडितों पर किसी निजी जाति का छाया भी पड़ गया तो वह अशुद्ध हो जाएँगे और कबीर ठहरे एक जुलाहा के बेटे।
हमारे कबीर भी कहाँ हार मानने वालों में से थे। कबीर सच्चे दिल से चाहते थे कि पंडित रामानंद उनके गुरु बने और इसीलिए उन्होंने तरकीब लगानी शुरू कर दी।
काशी के पंचगंगा घाट पर रोज प्रातः काल पंडित रामानंद स्नान करने आते थे। कबीर दास जी भी वहाँ पहुँच गए और जाकर सीढ़ियों पर लेट गए जो पंडित रामानंद के रास्ते से होकर गुजरती थी।
रोज की तरह जब पंडित रामानंद पंचगंगा घाट पर नहाने आए तो ना जानते हुए उन्होंने गलती से अपना पैर सीरी पर लेटे कबीर पर रख दिया। जब उन्हें आभास हुआ कि उन्होंने किसी व्यक्ति पर अपना पाँव रख दिया है तो वह राम-राम कह के पीछे हट गए।
कबीर ने रामानंद को “राम-राम” कहते हुए बोला कि आज से उनको अपना गुरू मंत्र मिल गया। यह सुनते ही रामानंद की आंखें खुल गई उन्होंने कबीर को गले लगाते हुए कहा कि वह कबीर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
इसी तरह से आखिरकार कबीर को रामानंद गुरु के रूप में प्राप्त हुए ।
कबीरदास और सिकंदर लोदी – Kabirdas and Sikander Lodi
सिकंदर लोदी दिल्ली के बादशाह थे। पूरी दिल्ली उनके इशारे पर नाचती थी। सिकंदर लोदी के पास ना ही पैसे की कमी थी ना ही संपत्ति की लेकिन कहते हैं ना यह ईश्वर सब को सब कुछ नहीं देता।
सिकंदर लोदी को एक बड़ी अजीब सी बीमारी थी जिसमें उनका पूरा शरीर जलता रहता था। ऐसा लगता था कि उनके शरीर को किसी ने आग पर रख दिया हो। बाहर से देखने में तो उनका शरीर बहुत तंदुरुस्त लगता था ऐसा आभास ही नहीं होता था जैसे उन्हें कोई पीड़ा हो या किसी तरह की भी तकलीफ हो लेकिन अंदर से मानो उनके तन के हर भाग मे जैसे आग लगी हो।
सिकंदर लोदी अपनी पीड़ा से बहुत ही परेशान रहते थे उन्होंने हर बड़े वैद्य को दिखाया लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। किसी को भी समझ ही नहीं आ रहा था यह कैसी बीमारी है और इसका इलाज कैसे होगा?
जब सिकंदर लोदी अपने दुख की दास्तान काशी के राजा वीर सिंह बघेल को बता रहे थे तब वीर सिंह बघेल ने सिकंदर लोदी को सुझाव देते हुए कहा कि आप हमारे कबीर दास के पास चलिए वह एक बहुत ही प्रसिद्ध संत है ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिनका उनके पास उत्तर ना हो ना ही ऐसी कोई बीमारी है जिसकी दवा वह ना कर सके।
काशी के राजा द्वारा इतनी तारीफ सुन के सिकंदर लोदी को विश्वास हो गया कि उनके बीमारी की दवा अब कबीर ही देंगे। सिकंदर लोदी ने काशी के राजा को आदेश देते हुए कहा कि कबीर को उनके सामने लाया जाए।
वीर सिंह बघेल सिकंदर लोदी को मना तो नहीं कर सकते थे लेकिन उन्होंने प्रेम से भरे स्वर में सिकंदर लोदी को समझाया कि, “वह एक संत है, वह परमात्मा का रूप है आप उन्हें ऐसे नहीं बुला सकते। अगर वह दुखी हो गए तो वह आपका रोग कभी भी ठीक नहीं करेंगे। उन्हें अपने सामने प्रकट करने के बजाय हमें उनके पास जाना चाहिए।”
सिकंदर लोदी इतनी पीड़ा में थे कि उन्होंने झट से हाँ कर दी। उन्होंने कहा कि जो भी बन पड़ेगा वह करेंगे उन्हें बस अपनी बीमारी की दवा चाहिए।
इस तरह से दोनों ही रामानंद के आश्रम में पहुंच गए जहाँ पर कबीर का निवास था। जब रामानंद को यह पता चला कि उनके आश्रम में दो मुसलमान आए हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गए और उन्होंने सिकंदर लोदी को अपशब्द कहकर वहाँ से चले जाने को कहा।
सिकंदर लोदी भी कोई मामूली आदमी तो थे नही वह ठहरे दिल्ली के बादशाह उन्होंने तलवार निकाली और रामानंद जी का सर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर वीर सिंह बघेल चिल्ला पड़े। उन्होंने सिकंदर लोदी से कहा कि, “आपने क्या कर दिया महाराज, अब तो हमें यहाँ से शीघ्र अति शीघ्र निकल जाना चाहिए वरना अगर कबीर को पता चलेगा तो वह आपको श्राप दे देंगे।”
जब सिकंदर लोदी और वीर सिंह बघेल वहाँ से जाने लगे तभी कबीर आश्रम की तरफ आ रहे थे। कबीर ने जब सिकंदर लोदी को देखा तो उन्होंने उनसे पूछा कि आज इतने बड़े सम्राट हमारे छोटे से आश्रम में क्यों आए हैं?
सिकंदर लोदी और वीर सिंह बघेल अपना मुकुट पहने ही कबीर दास जी के चरणों में गिर गए। जैसे ही कबीर ने सिकंदर लोदी के मुकुट को अपने हाथों से आशीर्वाद देने के लिए स्पर्श किया वैसे ही मानो सिकंदर लोदी की सारी पीड़ा दूर हो गई। सिकंदर लोदी को विश्वास नहीं हुआ। वह समझ चुके थे कि कबीर अल्लाह का एक रूप है।
कबीर दास जी के चरणों में गिर के उन्होंने सारी बात बता दी तथा अपने व्यवहार के लिए क्षमा भी माँगी। कबीर ने शांत मन से सिकंदर लोदी को कहा कि,“कोई किसी को नहीं मारता। यह सब ऊपर वाले का खेल है। रामानंद जी की मौत आज आपके हाथों ही लिखी थी सो वह हो गई।” यह सब सुन के सिकंदर लोदी को विश्वास हो गया कि कबीर कोई आम इंसान नहीं है।
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कबीर पंथ – Kabir Cult
कबीर दास नहीं चाहते थे कि उनकी बातें तथा दोहे विश्व प्रसिद्ध हो जाए लेकिन आज हर कोई उन्हें जानता है और बस जानता ही नहीं उनके नाम पर तो कई मंदिर भी है। आज उनके कई अनुयायि तथा शिष्य है।कबीर पंथ का निर्माण कबीर के ही एक शिष्य ने किया था। कबीर पंथ मे कबीर का दिया हुआ अद्भुत ज्ञान है। हमारे समाज को देखने का एक नया नजरिया छुपा है कबीर पंथ में।
कबीर पंथ की स्थापना कबीर के एक शिष्य द्वारा की गई थी जिसका नाम था धर्मदास। कबीर पंथ को मानने वालों को कबीरपंथी कहा जाता था। कबीर और कबीरपंथी मूर्ति पूजन में विश्वास नहीं करते थे। ऐसा कोई धर्म नहीं था जिसके लोग कबीर पंथ से प्रभावित ना हुए हो।
कबीर दास की रचनाएँ – Compositions of Kabir Das
कबीर दास की महान और प्रसिद्ध रचनाएँ हैं बीजक, कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर तथा साक्षी ग्रंथ। बस यही नहीं इसके अलावा भी कबीर के द्वारा लिखे गए बहुत ही प्रसिद्ध किताबें हैं।
बीजक कबीर के द्वारा रची गई एक महान रचना है जो 12 भाग में बटी हुई है। बीजक में सबसे पहले आती है रमैनी जिसमें बस परिचय है। इसमें कुल मिलाकर 84 पद है। रमैनी में 8400000 योनियों का वर्णन हेै। रमैनी के बाद आता है शब्द। शब्द में 115 पद है। अब शब्द के बाद आता है ज्ञान चौतीसा जिसमें 34 चौपाइयाँ हैं। फिर आता है विप्रमतिसी और फिर कहरा। इसी तरह से 6 और पाठ बीजक में मिलेंगे आपको।
भक्ति आंदोलन (Bhakti Movement)
भक्ति आंदोलन 8 वीं शताब्दी से 16 वीं शताब्दी तक चली थी। 800 सालों तक भक्ति आंदोलन का हमारे देश में प्रभाव देखा गया था। भक्ति आंदोलन शुरू तो दक्षिण भारत में हुई थी लेकिन देखते ही देखते उत्तरी भारत की तरफ भी फैल गई।भक्ति आंदोलन के समय पर बड़े-बड़े संत तथा परमात्मा आते थे अपना ज्ञान बाँटने।
भक्ति आंदोलन में संत कबीर का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। संत कबीर के साथ-साथ और भी बहुत बड़े बड़े ज्ञानियों ने भक्ति आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। उत्तरी भारत से कबीर दास, तुलसीदास, गुरु नानक, रामानुजा जैसे बड़े विद्वान आए थे। वही दक्षिण भारत से अलवर तथा नयनार आए।
कबीर दास ने बाहरी पूजन के हर तरीकों को नकारा था। वह मूर्ति पूजा में भी विश्वास नहीं रखते थे। वह मानते थे कि श्रद्धा आंतरिक रुप से होनी चाहिए। इस सोच का सबसे ज्यादा निधि जाति को लाभ हुआ जो बड़े-बड़े मंदिरों में नहीं जा सकते थे या जो सोने चाँदी के चढ़ावे नहीं चढ़ा पाते थे। उनका कहना था कि, “भगवान हममें ही है हमें दूर-दूर मंदिर मस्जिद जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।”
कबीर दास का मानना था कि भगवान एक ही होता है उसके अनेक रुप नहीं है। उनकी शिक्षण यह कहती थी कि हम सब में एक ही तरह की उर्जा है। हम सब एक ही भगवान से बने और हम सबका मालिक एक ही है।
कबीर दास ने लोगों को अहिंसा के पद पर चलने की सीख दी थी। वह हिंसा के विरोधी थे। अहिंसा को अपना कर ही हम अपना मन शांत रख सकते हैं।
कबीरदास के किताबों में इस बात का जिक्र है कि 8400000 योनियों में मनुष्य फंसा रहता है बार-बार जन्म लेने में ही उसकी सारी ऊर्जा बंधी रहती है। यह बंधन तभी छूटेगा जब आपके कर्म अच्छे होंगे और फिर आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी। उन्होंने अपने किताबों में इस बात का भी जिक्र किया है कि कैसे हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
कबीर दास की शिक्षण सार्वभौमिक है तथा सारे ही जातियों पर लागू होती हैं। कबीर दास का मज़ार भी है और उनकी समाधि भी है। उनके लिए हर धर्म एक था चाहे वह हिंदू हो, मुस्लिम हो, या सीक हो। धीरे-धीरे कबीर दास जी के शिक्षण को सभी धर्मों के लोग मानने लगे और इसी तरह से उन्होंने हमारे समाज में क्रांति लाई।
काशी और मगहर
पहले के समय में स्वर्ग और नरक मे लोग उतना विश्वास नहीं रखते थे जितना कि इस बात में रहते थे की अगर किसी व्यक्ति की काशी मे मौत होती है तो निश्चित है कि उसे अपनी मौत के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
इसी कथा के विपरीत भी एक कथा है जिसमें ऐसा माना जाता है कि अगर किसी व्यक्ति की मगहर में मृत्यु हो जाए तो उसे मौत के बाद नर्क में जाना पड़ेगा चाहे कितने भी पुण्य किए हो।
जब कबीर के कानों तक यह अंधविश्वासी बात पहुँची तो उन्होंने यह ऐलान किया कि उनकी मौत मगहर में ही होनी चाहिए। उनका यह मानना था कि स्वर्ग और नरक इंसान के कर्मों से निश्चित होता है ना की किसी के कहीं सुनाई बातों से और कोई भी भगवान में सच्चे तरीके से लीन हो सकते हैं।
कबीर दास के कुछ प्रचलित दोहे (Kabir Das Ke Dohe)
कबीर दास जी अपने दोहे में इतने अनमोल और गहरे शब्द छिपाकर कहते थे जिसका कोई इंसान अंदाजा नहीं लगा सकता। तो चलिए आज हम उनके कुछ दोहे और उनके मतलब देखें जिससे हमें भी कुछ ज्ञान प्राप्त हो:
1. “पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
इस दोहे का अर्थ है कि आप कितना भी पढ़ ले कितने भी डिग्री हासिल कर ले लेकिन तब तक आप अनपढ़ माने जाएँगे जब तक आपको ढंग से बात करना नहीं आएगा। यहाँ पर जो शब्द है “ढाई आखर प्रेम का” उसका अर्थ है प्यार से बोले गए दो बोल। अगर आपने इस दुनिया में रहकर प्यार से बोलना ही नहीं सीखा या आपमे दयालुता ही नहीं है तो फिर आपके जीवन का कोई अर्थ ही नहीं।
कबीर दास ने अपने जीवन में महान महान पंडितों और मौलवियों को देखा लेकिन उनमें से ज्यादातर लोग कबीरदास से अच्छे से बात नहीं करते थे और उन्हें वक्त वक्त पर अपमानित करते थे क्योंकि वह एक निजी जाति के आदमी थे। यह दोहा उन्होंने वैसे लोगों के लिए लिखा है जो विद्वान तो बन जाते हैं लेकिन समाज में अपने व्यवहार के कारन इज्जत नहीं कमा पाते।
2. “जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।”
इस दोहे का अर्थ है की जब तक आप किनारे पर बैठे रहेंगे तब तक आप पानी की गहराई को कैसे नाप पाएँगे। आप चाहे जितनी भी कोशिश कर ले नदी के बाहर खड़े रहकर, नदी के बारे में नहीं बता सकते।
अपने जिंदगी में आपको ऐसे बहुत लोग मिलेंगे जो कुछ करना तो चाहते हैं लेकिन वह किसी भी तरह का खतरा लेने से डरते हैं। इसके वजह से वह कभी भी अपने सुविधा क्षेत्र से बाहर नहीं निकल पाते ना ही अपनी जिंदगी में कुछ अलग कर पाते हैं और फिर कला होने के बाद भी एक साधारण जिंदगी जीते है।
3. “ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। ओरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।”
इस दोहे का अर्थ है कि ऐसे शब्द बोलिए जो सभी को अच्छे लगे। कुछ भी बोलने से पहले इस बात का ध्यान रखें कि आपकी बात से कोई दुखी ना हो। हंसी मजाक में भी कभी भी अपने शब्दों से किसी को दुख ना पहुंचाएँ।
पुराने जमाने में बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है जिसमें कहा गया है कि कमान से छूटा तीर और मुंह से निकला शब्द कभी वापस नहीं आता इसलिए कुछ भी बोलने से पहले सौ बार सोचे अगर तब भी आपको लगे कि,“हाँ, इस वक्त पर यह बात बोलना उचित है तभी उस बात को बोले।”
4. बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
इस दोहे का अर्थ है की मैं जब इस संसार में बुरा देखने चला तब मुझे कोई बुरा मिला ही नहीं लेकिन जब मैंने अपने अंदर झांक के देखा तब पाया कि मुझसे बुरा तो इस संसार में कोई है ही नहीं।
यह जिंदगी का एक कटु सत्य है हम हमेशा दूसरों में बुराई देखते और ढूंढते हैं। कभी भी अपना आत्मविश्लेषण नहीं करते। अगर हम दूसरों की जिंदगी में झाँकना बंद करे और अपनी गलतियों को परखना और उन्हें सुधारना शुरू करें तभी हमारी जिंदगी बेहतर बनेगी।
कबीर दास की मौत – Death of Kabir Das
कबीर दास का जन्म और उनकी मृत्यु दोनों ही रहस्य थे। कबीर दास जी की मृत्यु 1518 में जनवरी के महीने में हुई थी। उस समय उनकी आयु 96 वर्ष की थी। उनकी मौत उत्तर प्रदेश के मगहर में हुई थी।
कोई नहीं जानता था वह किस जाति के हैं इसी वजह से जब उनकी मौत हुई तब हिंदू मुस्लिम दोनों में बहुत विवाद हुए थे जिसका मुद्दा था की, “उनका अंतिम संस्कार किस प्रकार होगा?”
हिंदू उनका अंतिम संस्कार हिंदू विधि के अनुसार यानी कि उनका शरीर जलाकर करना चाहते थे वही मुसलमान उन्हें दफनाना चाहते थे। चमत्कार तो तब देखा गया जब उनके शरीर के ऊपर रखा चादर हटाया गया।
ऐसा कहा जाता है कि जब कबीरदास के मृत्य शरीर पर से चादर हटाई गई तब वहाँ पर उनका शरीर नहीं था बस और बस फूल थे। यह देखकर सब हैरान हो गए। बाद में हिंदू और मुसलमान दोनों ने उन फूलों को आपस में बराबर से बाँट लिया। इसके बाद ही से कबीर को भगवान का दर्जा दिया गया क्योंकि कोई नहीं जानता उनका जन्म कब और कहाँ हुआ तथा उनकी मृत्यु के बाद उनका शरीर कहाँ गया।